एडवोकेट मनीषा भंडारी आज देश की उन गिने-चुने वकीलों में से एक हैं जिनका नाम हर बार तब सामने आता है जब किसी बड़े अपराधी को अदालत से राहत मिलती है।
नैनीताल हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस करने वाली इस वकील की एक सुनवाई की फीस ही लाखों में बताई जाती है।
पिथौरागढ़ की सात वर्षीय मासूम बच्ची कशिश के बलात्कार और हत्या के आरोपी अख्तर अली का केस भी इसी ने सुप्रीम कोर्ट में लड़ा और वहीँ से अख्तर को मौत की सज़ा से बचाकर बाहर निकाल दिया गया।
20 नवंबर 2014 की रात कशिश अपने परिवार के साथ हल्द्वानी आई हुई थी। उसी दौरान अख्तर अली ने उसका अपहरण किया और फिर उसके साथ दरिंदगी कर उसकी हत्या कर दी।
ट्रायल कोर्ट और उसके बाद हाईकोर्ट ने आरोपी को दोषी मानते हुए फांसी की सजा सुनाई, लेकिन सुप्रीम कोर्ट में मामला जाते ही तस्वीर बदल गई। यहां मनीषा भंडारी ने ऐसी दलीलें दीं कि अपराध और अपराधी दोनों संदेह के घेरे में खड़े कर दिए गए।
इसने अदालत के सामने तर्क रखा कि पुलिस ने बच्ची के चचेरे भाई निखिल चंद की सही तरीके से जांच ही नहीं की जबकि उसी ने सबसे पहले शव की सूचना दी थी।
असल में किसी खच्चर चलाने वाले व्यक्ति ने शव देखा और फिर सूचना फैली, लेकिन सुप्रीम कोर्ट में इसे इस तरह पेश किया गया मानो निखिल खुद संदिग्ध हो।
दूसरी ओर वकील ने यह भी दावा किया कि पुलिस ने अख्तर अली को पहले ही पकड़ लिया था और गुप्त रूप से उसके खून और सीमेन के सैंपल लेकर उन्हें सबूतों पर चढ़ा दिया ताकि DNA रिपोर्ट उसी से मैच हो जाए।
यही नहीं, अदालत में यह कहानी भी सुनाई गई कि पुलिस ने झूठा नाटक रचकर बाद में लुधियाना से गिरफ्तारी दिखाई। इन सब दलीलों का मकसद यही था कि पुलिस की पूरी जांच को संदेहास्पद बना दिया जाए।
*इस पूरे मामले में सरकारी वकील वंशजा शुक्ला की भूमिका भी बेहद कमजोर रही। पीड़िता के पिता खुद कह चुके हैं कि सरकारी वकील कई बार सुनवाई में अदालत में पहुंची ही नहीं।*
मतलब इसने खाया है, ….नही तो इतने इम्पोटेंट केस में वकील गैरहाजिर कैसे हो सकती है।
नतीजा यह हुआ कि मनीषा भंडारी की बातों को महत्व दिया गया और सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि आरोपी के खिलाफ सारे सबूत केवल परिस्थितिजन्य हैं, कोई प्रत्यक्ष गवाह नहीं है। अदालत ने साफ लिखा कि केवल संदेह के आधार पर किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। इस तरह अख्तर अली को बाइज्जत बरी कर दिया गया।
इस फैसले ने न्याय व्यवस्था पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए। जब DNA रिपोर्ट और पोस्टमार्टम जैसे वैज्ञानिक प्रमाण भी अदालत के लिए पर्याप्त नहीं माने गए,
तब आम जनता को यही लगने लगा कि सुप्रीम कोर्ट किसी प्रत्यक्ष कैमरे की फुटेज का इंतज़ार कर रहा था।
निचली अदालतें जहां इन्हीं सबूतों को आधार मानकर फांसी की सजा सुना चुकी थीं, वहां सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें नकार दिया।
आज स्थिति यह है कि अख्तर अली और प्रेम लाल वर्मा जैसे अपराधी खुले घूम रहे हैं।
*सवाल यह भी उठता है कि एक मामूली ट्रक ड्राइवर अख्तर अली इतना पैसा कहां से लाया कि वह सुप्रीम कोर्ट में लाखों फीस लेने वाली वकील को खड़ा कर सके?……. साफ है कि कोई बड़ा नेटवर्क या संगठित गिरोह इसके पीछे सक्रिय रहा जिसने करोड़ों खर्च करके उसे बचाया। यही वजह है कि न केवल वकील बल्कि न्यायाधीशों तक पर पैसों के असर का संदेह गहराता है।*
यही कारण है कि संदेह पक्का होता है अख्तर अली ही अपराधी है।
कशिश जैसी मासूम बच्ची के लिए न्याय की उम्मीद टूट चुकी है। अदालतें जिन तकनीकी खामियों के आधार पर अपराधियों को मुक्त कर देती हैं, वही खामियां पीड़ित परिवार की पीड़ा को और गहरा कर देती हैं।
इस पूरे घटनाक्रम ने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या भारत की न्याय व्यवस्था वास्तव में पीड़ित के पक्ष में खड़ी है या फिर ताकतवर और पैसे वाले अपराधियों के पक्ष में झुक जाती है।

